सांप्रदायिक संगठनों की राजनीति से बचने की जरुरत

सांप्रदायिक संगठनों की राजनीति से बचने की जरुरत

मात्र २४ अगस्त से २ अक्टूबर २००८ के बीच उड़ीसा में १४ जिलों के ३०० गावं सांप्रदायिक हिंसा से प्रभावित हुए। ४,३०० घर जलाये गए तथा ५७ लोगों की हत्याएं हुईं। २ महिलाओं का सामूहिक बलात्कार हुआ। १४९ गिरजाघरों तथा १३ शैक्षिक संस्थानों पर हमले हुए। कर्णाटक के ४ जिलों में १९ गिरजाघरों पर हमले हुए तथा २० महिलाएं घायल हुईं। केरल में ३, मध्य प्रदेश में ४, दिल्ली व तमिल नाडू में एक-एक गिरजाघरों पर हमले हुए तथा उत्तराखंड में २ लोगों की हत्या हुई। इन सभी घटनाओं में निशाने पर था इसाई समुदाय तथा हमलावर थे हिन्दुत्ववादी संगठन।

दूसरी तरफ़ देश में बम विस्फोट की घटनाएँ थमने का नाम नहीं ले रहीं, जिनमें मुस्लिम समुदाय को निशाने पर रखा गया है। संसद में भारत-अमरीका परमाणु समझौते पर करारी शिकस्त के बाद तथा अचानक अपने-आप को प्रतीक्षारत प्रधान मंत्री घोषित कर चुके लाल कृष्ण अडवाणी के सामने प्रधान मंत्री पद की प्रबल दावेदार के रूप में मायावती के उभरने के बाद, देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति तेज़ हो चुकी है।

हम देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की कोशिशों की भर्त्सना करते हैं, तथा मांग करते हैं कि सांप्रदायिक संगठनों पर तुंरत रोक लगायी जाए। हम जनता से भी अपील करते हैं कि वह इन संगठनों की राजनीति से बचे तथा ऐसे संगठनों को खारिज करें।

एस.आर. दारापुरी (दलित मुक्ति मोर्चा), मुहम्मद अहमद (जमात--इस्लामी), प्रोफेसर रूप रेखा वर्मा (भूतपूर्व कुलपति लखनऊ विश्वविद्यालय और साझी दुनिया की प्रतिनिधि), वकील सलाहुद्दीन खान (नेशनल डेमोक्रेटिक फोरम), राकेश (इप्टा), इरफान अहमद (पी.यू.सी.एल), एम्.एम्.नसीम (फोरम फॉर पीस एंड यूनिटी), संदीप पाण्डेय (आशा परिवार)